अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

दीप बहारों के

   



 

इतराते हैं कहीँ महल मॆं
दीप बहारों के
अंधकार मॆं कहीँ खो रहे
सदन हजारों के

थके-थके दिन भटक रहे हैं
कुहरे मॆं पागे
दाँव खेलती नियति कलमुँही
रात-रात जागे

झिझक रहा सूरज भी आते
घर लाचारों के

तोड़ रहीं दम यहाँ हवायें
चुप आते-आते
व्यतिक्रम के मारे-से बीतें
दिन रोते गाते

हृदय कँपा जाती है पछुआ
इन बेचारों के

सौदागर ने कैद रखी है
खुशबू झोली मॆं
अर्थ ढूँढती फिरे वेदना
गूँगी बोली मॆं

कैसे पहुँचे नाव किनारे बिन
पतवारों के

- कल्पना मनोरमा
१५ अक्तूबर २०१६
   

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter