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रीत प्रीत की

 

रीत प्रीत की बन गई, राखी का त्योहार
हरित रूप ले धरा ने, बदला निज व्यवहार

कच्चे धागों मॆं भरा, भगिनी का विश्वास
कर से कर में बाँधती, अपने मन की आस

बूँद-बूँद से सज गया, सावन का रँग रूप
मदिरालय से छलकते, नदिया पोखर कूप

झरना झर-झर कर रहा, मनहारी झंकार
श्याम सलोने जलद का, मानूँगा उपकार

इन्द्रधनुष पर छा गये, जीवन के सब रंग
हलके-गाढे रंग मॆं, जीने के बहु ढंग

प्रेम और विश्वास मिल, सजती राखी हाथ
विधना ने सुंदर रचा, भाई-बहन का साथ

हुई प्रेमवस बाँवरी, विरही बरखा रैन
रह-रह उर को सालते, चातक पाहन बैन

- कल्पना मनोरमा
१५ अगस्त २०१६

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