इस नगर से
इस नगर से
आ गए हम तंग।
भीड़ का
पीकर ज़हर हँसते रहो
रोज़ उजड़ो
और फिर बसते रहो
किस तरह के
ये
नियम, ये ढंग
इस नगर से
आ गए हम तंग।
थी बहुत
अपनी नदी मीठा कुआँ
खो गए सब
बच रहा काला धुआँ
लग गई है
ज़िंदगी में जंग
इस नगर से
आ गए हम तंग।
९
अक्तूबर २००५ |