अनुभूति में
धीरज श्रीवास्तव की रचनाएँ-
नये गीतों में-
कैसे मैं पैबंद लगाऊँ
धूप जिंदगी
बेशर्म आँसू
मुझको नींद नहीं आती माँ
लौट शहर से आते भाई
गीतों में-
जब जब घर आता मैं
दाल खौलती
पल भर ठहरो
भाग रही है
मन का है विश्वास |
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कैसे मैं
पैबंद लगाऊँ
कैसे मैँ पैबन्द लगाऊँ
उलझ गये जीवन के धागे
यदि हाथ लगाऊँ जो अपना
हो जाये सोना भी माटी
ऊपर से पुरखे समझाते
हैँ याद दिलाते परिपाटी
दूजे देकर फर्ज चुनौती
दो दो हाथ करे तब भागे
इक ओर सुखोँ की इच्छा है
औ इधर निमन्त्रण है दुख का
है धुंध बहुत ही अंतस में
सब रंग उड़ चुका है मुख का
किन्तु गरीबी बैठ हमारी
उलझन की बस कथरी तागे
कर्ज करे आँगन में नर्तन
छाती पर मूँग दले बनिया
खाली खाली बोझिल बर्तन
बैठ भूख से रोये धनिया
भाग रहे हम पीछे पीछे
अम्मा की बीमारी आगे
ये जग हँसता है देख मुझे
राहोँ के पत्थर टकरायेँ
ये शीतल मंद हवायेँ भी
भीतर से मुझको दहकायेँ
और जरूरत सिर पर चढ़कर
हरदम एक पटाखा दागे
बूँद पसीने की लेकर मैँ
गूँथ रहा कर्मों का आटा
राह तकी है मैँने तेरी
सोच तुम्हें ही जीवन काटा
ऐ भाग्य तुम्हारे खातिर ही
अब तक मेरी आशा जागे
१ मई
२०१६
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