अनुभूति में
बृजनाथ श्रीवास्तव
की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
कवि नहीं हो सकते
नौकरीशुदा औरतें
मार्गदर्शक
मेरे लिए कलम
रोटी
गीतों में-
अलकापुरी की नींद टूटे
इसी शहर मे खोया
गंध बाँटते डोलो
पहले
जैसा
प्रेमचंद जी
बुलबुल के घर
ये शहर तो
सगुनपंछी
सुनो
राजन
होंठ होंठ मुस्काएँगे
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रोटी
मैंने देखा
कई-कई बार
एक नहीं हजार बार
कि
रोटी गोल और चपटी होती है
ठीक तवे की तरह
इसीलिए समझ गया था
कि रोटी और तवे का
अन्योन्याश्रित सम्बंध है
हमारे पेटों में आग जली
और मैंने तवे को उस पर रख दिया
वह धीरे-धीरे गरम होने लगा
मैं उस तवे पर डालने के लिए
और सेंकने के लिए
निकल पड़ा
रोटी की तलाश में
मैंने देखा कि
पूँजीपतियों ने
उद्योगपतियों ने
लोकसेवकों ने
लोकप्रतिनिधि यों ने
और माफियाओं ने
रोटी को घनाकार
और ठोस कर दिया है
ठीक
सोने की सिल्लियों की तरह
और बना लिया गया है उन्हें
बंधक
न सरकने देने के लिए
आमजनों के पास
पीढ़ी दर पीढ़ी
१ नवंबर २०२२
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