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अनुभूति में बृजनाथ श्रीवास्तव की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
कवि नहीं हो सकते
नौकरीशुदा औरतें
मार्गदर्शक
मेरे लिए कलम
रोटी

गीतों में-
अलकापुरी की नींद टूटे
इसी शहर मे खोया
गंध बाँटते डोलो
पहले जैसा
प्रेमचंद जी
बुलबुल के घर
ये शहर तो
सगुनपंछी
सुनो राजन
होंठ होंठ मुस्काएँगे

 

नौकरीशुदा औरतें

आज भी वह थकी-थकी सी
मेरे साथ ही आफिस से घर आयी
हाथ मुँह धोया
और रख दिया भगोने में पानी
चाय के लिए गैस स्टोव पर
आफिस में यह हुआ, वह हुआ
कहते हुए
छानकर पकड़ा दी है चाय
और खुद लेती हुई चुस्कियाँ
जुट गई है सब्जी काटने में
अब वह रात का खाना बनाकर
सबको खिलाकर
फारिग हो पायेगी
रात दस बजे के बाद
वह सोती है उनींदी नींदें
जग जाती है अल्ल सुबह
मुर्गे की बाँग से पहले
और जगते ही
हो जाते हैं उसके कई-कई हाथ
दुर्गा जैसी किसी देवी की तरह
किसी मशीन की तरह
झाड़ू, पोंछा, रसोईघर
मुझे और बच्चे को नाश्ता
स्नान, पूजा, टिफिन और फिर
आफिस चलने को तैयार मेरे साथ
सच में संतों सा
कितना त्याग करती हैं
नौकरीशुदा औरतें
तन,मन और धन से
अनवरत करती जातीं हैं काम
निस्पृह मेरे लिए, बच्चों के लिए
घर के लिए
सब कुछ अपना ही तो है
इसी अवधारणा के साथ

१ नवंबर २०२२

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