नदी बाढ़ के
हम सूखे बादल को जीते
किन दरवाज़ों
दिन आषाढ़ के।
अपने भीतर धूप उगी-सी
दूब किसी जंगल में,
टेर टिटिहरी की
खोते-से
सुबह-शाम
हर पल में।
दरकी छाती में बोए-से
किस्से कितने
नदी-बाढ़ के।
रेत झाड़ कर उड़े पखेरू
खोल-खोल डैने,
ऐसा शाप
सभी जन्मों में
पाया है मैंने।
उँगली का गीलापन सूखा
गर्म-हवा में
फूल काढ़ के।
२५ फ़रवरी २००८
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