दुख पिता की तरह
कुछ नहीं कहते
न रोते हैं
दुख
पिता की तरह
होते हैं।
इस भरे तालाब-से
बाँधे हुए
मन में
धुँआते-से रहे ठहरे
जागते
तन में,
लिपट कर हम में
बहुत चुपचाप
सोते हैं।
सगे अपनी बाँह-से
टूटे हुए
घर के
चिता तक जाते
उठा कर पाँव
कोहबर के,
हम अजाने में जुड़ी
उम्मीद
बोते हैं।
१६ अप्रैल २००५
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