आवाज़ों के खो जाने का दुख
कितना
आस-पास की आवाज़ों के खो जाने का
दुख कितना।
खाली-पन कितना-कितना।
बाँस-वनों के साँय-साँय
सन्नाटों-सा
सब डूबा-डूबा,
खुद में होकर भी
जाने क्यों
बस्ती का मन ऊबा-ऊबा।
एक टेर थी नदी किनारे
गीला-मन
कितना-कितना।
यह आंतरिक प्रसंग
हुआ जाता
कुछ बाहर,
बूढ़ों से बच्चों तक जुड़ते
पेड़ों के रिश्ते
जैसे घर।
थोड़ी देर हवा का रुकना
काँपा तन
कितना-कितना।
२५ फ़रवरी २००८
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