मेरे मन के
ताल में मेरे मन के ताल में
शंका वाली कंकरी
फेंकी तुमने ज़ोर से
बहुत विकल हूँ भोर से।
गंधवती तो हुई हवा
चंदन के सहवास से
किंतु न चंदन मुक्त हुआ,
दंशन के भुजपाश से
हे भगवान सुना ऐसा
नाग और खुशबू दोनों
बँधे प्रणय की डोर से
बहुत विकल हूँ भोर से।
सूरज वंशी सपने भी
हतप्रभ हो दृग से निकले
आशाओं के शकुनि सभी
कंचन के मृग से निकले
रूठा हुआ समय देखो
पालागन कह गया मुझे
सुधियों के उस छोर से
बहुत विकल हूँ भोर से
१ अप्रैल २००६
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