गंगाजल वाले कलश
गंगाजल वाले कलश नहीं हो तुम,
हाँ महासिंधु होगे खारे जल के।
ये अधर हमारे रेगिस्तानी हैं।
पर रामानुज जैसे अभिमानी हैं।
ओ क्रुद्ध परशुधर तुमसे ही हमको,
सारी भूलें स्वीकार करानी हैं।
गंभीर नहीं तुम नीली झीलों से,
आधे जल वाली गागर से छलके।
कंधों पर यात्रा हमें नहीं करनी।
अपनी झमता से वैतरणी तरनी।
वंचित रहना स्वीकार हमें लेकिन,
भिक्षा के यश से गोद नहीं भरनी।
तुम कल्पमेघ तो हमको नहीं लगे,
गर्जन वाले बस बादल हो हलके।
तुम आयोजक आंधी तुफ़ानों के।
हम सहज सरल नाविक जलयानों के।
हर भँवर फँसी पीढ़ी दुहरायेगी,
आख्यान हमारे ही अभियानों के।
जब-जब भी जलते अधरों पर साधे,
मायावी ओस कणों से तुम ढलके।
हाँ महासिंधु होगे खारे जल के।
१ अप्रैल २००६