दीप कहीं सोता है
पुजारी दीप कहीं सोता है!
जो दृग दानों के आभारी
उर वरदानों के व्यापारी
जिन अधरों पर काँप रही है
अनमाँगी भिक्षाएँ सारी
वे थकते, हर साँस सौंप देने को यह रोता है।
कुम्हला चले प्रसून सुहासी
धूप रही पाषाण समा-सी
झरा धूल सा चंदन छाई
निर्माल्यों में दीन उदासी
मुसकाने बन लौट रहे यह जितने पल खोता है।
इस चितवन की अमिट निशानी
अंगारे का पारस पानी
इसको छूकर लौह तिमिर
लिखने लगता है स्वर्ण कहानी
किरणों के अंकुर बनते यह जो सपने बोता है।
गर्जन के शंखों से हो के
आने दो झंझा के झोंके
खोलो रुद्ध झरोखे, मंदिर
के न रहो द्वारों को रोके
हर झोंके पर प्रणत, इष्ट के धूमिल पग धोता है।
लय छंदों में जग बँध जाता
सित घन विहग पंख फैलाता
विद्रुम के रथ पर आता दिन
जब मोती की रेणु उड़ाता
उसकी स्मित का आदि, अंत इसके पथ का होता है।
9
नवंबर 2007 |