क्यों न तुमने दीप
बाला
क्यों न इसके शीत अधरों से लगाई
अमर ज्वाला
अगम निशि है यह
अकेला
तुहिन पतझर वात वेला
उन करों की सहज सुधि में
पहनता अंगार-माला
स्नेह मांगा और न
बाती
नींद कब, कब क्लांति भाती
वर इसे दो एक कह दो
मिलन के क्षण का उजाला
झर इसी से अग्नि के
कण
बन रहे हैं वेदना घन
प्राण में इसने विरह का
मोम सा मृदु शलभ पाला
यह जला निज धूम पीकर
जीत डाली मृत्यु जीकर
रत्न सा तम में तुम्हारा
अंक मृदु पद का संभाला
यह न झंझा से बुझेगा
बन मिटेगा मिट बनेगा
भय इसे है हो न जावे
प्रिय तुम्हारा पंथ काला
--महादेवी वर्मा
1 नवंबर 2007