अनुभूति में
डॉ. धर्मवीर भारती की रचनाएँ-
मुक्तक में-
चार मुक्तक
छंदमुक्त में-
आँगन
उत्तर नहीं हूँ
उदास तुम
उपलब्धि
एक वाक्य
क्या इनका कोई अर्थ नहीं
टूटा पहिया
तुम्हारे चरण
थके हुए कलाकार से
नवंबर की दोपहर
बरसों बाद उसी सूने आँगन में
प्रार्थना की कड़ी
फागुन की शाम
बोआई का गीत
विदा देती एक दुबली बाँह
शाम दो मनःस्थितियाँ
सुभाष की मृत्यु पर
सृजन
गौरव ग्रंथ में-
अंधायुग
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तुम्हारे चरण
ये शरद के चाँद-से उजले धुले-से पाँव,
मेरी गोद में!
ये लहर पर नाचते ताज़े कमल की छाँव,
मेरी गोद में!
दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दाँव,
मेरी गोद में!
रसमसाती धूप का ढलता पहर,
ये हवाएँ शाम की, झुक-झूमकर बरसा गईँ
रोशनी के फूल हरसिंगार-से,
प्यार घायल साँप-सा लेता लहर,
अर्चना की धूप-सी तुम गोद में लहरा गई
ज्यों झरे केसर तितलियों के परों की मार से,
सोनजूही की पँखुरियों से गुँथे, ये दो मदन के बान,
मेरी गोद में!
हो गए बेहोश दो नाजुक, मृदुल तूफ़ान,
मेरी गोद में!
ज्यों प्रणय की लोरियों की बाँह में,
झिलमिलाकर औ’ जलाकर तन, शमाएँ दो,
अब शलभ की गोद में आराम से सोयी हुईं
या फ़रिश्तों के परों की छाँह में
दुबकी हुई, सहमी हुई, हों पूर्णिमाएँ दो,
देवताओं के नयन के अश्रु से धोयी हुईं।
चुम्बनों की पाँखुरी के दो जवान गुलाब,
मेरी गोद में!
सात रंगों की महावर से रचे महताब,
मेरी गोद में!
ये बड़े सुकुमार, इनसे प्यार क्या?
ये महज़ आराधना के वास्ते,
जिस तरह भटकी सुबह को रास्ते
हरदम बताए हैं रुपहरे शुक्र के नभ-फूल ने,
ये चरण मुझको न दें अपनी दिशाएँ भूलने!
ये खँडहरों में सिसकते, स्वर्ग के दो गान, मेरी गोद में!
रश्मि-पंखों पर अभी उतरे हुए वरदान, मेरी गोद में!
१४ जुलाई २००८
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