अनुभूति में
डॉ. धर्मवीर भारती की रचनाएँ-
मुक्तक में-
चार मुक्तक
छंदमुक्त में-
आँगन
उत्तर नहीं हूँ
उदास तुम
उपलब्धि
एक वाक्य
क्या इनका कोई अर्थ नहीं
टूटा पहिया
तुम्हारे चरण
थके हुए कलाकार से
नवंबर की दोपहर
बरसों बाद उसी सूने आँगन में
प्रार्थना की कड़ी
फागुन की शाम
बोआई का गीत
विदा देती एक दुबली बाँह
शाम दो मनःस्थितियाँ
सुभाष की मृत्यु पर
सृजन
गौरव ग्रंथ में-
अंधायुग
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चार मुक्तक
ओस में भीगी हुई अमराईयों को चूमता
झूमता आता मलय का एक झोंका सर्द
काँपती-मन की मुँदी मासूम कलियाँ काँपतीं
और ख़ुशबू सा बिखर जाता हृदय का दर्द!
ईश्वर न करे तुम कभी ये दर्द सहो
दर्द, हाँ अगर चाहो तो इसे दर्द कहो
मगर ये और भी बेदर्द सजा है ए दोस्त!
कि हाड़ हाड़ चिटख जाए मगर दर्द न हो!
तप्त माथे पर, नजर में बादलों को साध कर
रख दिये तुमने सरल संगीत से निर्मित अधर
आरती के दीपकों की झिलमिलाती छाँह में
बाँसुरी रखी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर
फीकी फीकी शाम हवाओं में घुटती घुटती आवाजें
यूँ तो कोई बात नहीं पर फिर भी भारी भारी जी है,
माथे-पर-दु:ख-का-धुँधलापन,-मन-पर-गहरी-गहरी-छाया
मुझको शायद मेरी आत्मा नें आवाज कहीं से दी है!
२७ अगस्त २०१२
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