अनुभूति में
डॉ. धर्मवीर भारती की रचनाएँ-
मुक्तक में-
चार मुक्तक
छंदमुक्त में-
आँगन
उत्तर नहीं हूँ
उदास तुम
उपलब्धि
एक वाक्य
क्या इनका कोई अर्थ नहीं
टूटा पहिया
तुम्हारे चरण
थके हुए कलाकार से
नवंबर की दोपहर
बरसों बाद उसी सूने आँगन में
प्रार्थना की कड़ी
फागुन की शाम
बोआई का गीत
विदा देती एक दुबली बाँह
शाम दो मनःस्थितियाँ
सुभाष की मृत्यु पर
सृजन
गौरव ग्रंथ में-
अंधायुग
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थके हुए
कलाकार से
सृजन की थकन भूल जा देवता!
अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,
अभी तो पलक में नहीं खिल सकी
नवल कल्पना की मृदुल चाँदनी,
अभी अधखिली ज्योत्स्ना की कली
नहीं जिन्दगी की सुरभि में सनी!
अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,
अधूरी धरा पर नहीं है कहीं
अभी स्वर्ग की नींव का भी पता।
सृजन की थकन भूल जा देवता!
रुका तू, गया रुक जगत का सृजन,
तिमिरमय नयन में डगर भूल कर
कहीं खो गई रोशनी की किरन
अलस बादलों में कहीं सो गया
नई सृष्टि का सात-रंगी सपन
रुका तू, गया रुक जगत का सृजन,
अधूरे सृजन से निराशा भला
किसलिए जब अधूरी स्वयं पूर्णता?
सृजन की थकन भूल जा देवता!
प्रलय से निराशा तुझे हो गयी,
सिसकती हुई साँस की जालियों में
सबल प्राण की अर्चना खो गयी
थके बहुओं में अधूरी प्रलय
औ' अधूरी सृजन-योजना सो गयी
थकन से निराशा तुझे हो गयी?
इसी ध्वंस में मूर्छिता-सी कहीं
पड़ी हो नई जिन्दगी, क्या पता?
सृजन की थकन भूल जा देवता!
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