नवंबर की दोपहर
अपने हलके-फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती
है
जार्जेट के पीले पल्ले-सी यह दोपहर नवम्बर की!
आई गई ऋतुएँ पर वर्षों से ऐसी दोपहर नहीं आई
जो क्वाँरेपन के कच्चे छल्ले-सी
इस मन की उँगली पर
कस जाए और फिर कसी ही रहे
नितप्रति बसी ही रहे, आँखों, बातों में, गीतों में
आलिंगन में घायल फूलों की माला-सी
वक्षों के बीच कसमसी ही रहे
भीगे केशों में उलझे होंगे थके पंख
सोने के हंसों-सी धूप यह नवम्बर की
उस आँगन में भी उतरी होगी
सीपी के ढालों पर केसर की लहरों-सी
गोरे कंधों पर फिसली होगी बन आहट
गदराहट बन-बन ढली होगी अंगों में
आज इस वेला में
दर्द में मुझको
और दोपहर ने तुमको
तनिक और भी पका दिया
शायद यही तिल-तिल कर पकना रह जाएगा
साँझ हुए हंसों-सी दोपहर पाँखें फैला
नीले कोहरे की झीलों में उड़ जाएगी
यह है अनजान दूर गाँवों से आयी हुई
रेल के किनारे की पगडण्डी
कुछ क्षण संग दौड़-दौड़
अकस्मात नीले खेतों में मुड़ जाएगी...
१४ जुलाई २००८
|