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उलझन
ढाल
धूप का ढलता साया
फिर बदल गया

छंदमुक्त में-
और बच्चे खेलते रहे
क्या उसे हक़ था
खारदार झाड़ियाँ
दो खुली आँखें
ये कैसा ख़ौफ़ है

 

ये कैसा ख़ौफ़ है

ये कैसा ख़ौफ़ है ?
छाया रहता है तुम पर
कैसा डर है ये
दिल को दहलाता है।

फूल डाली से चिपका रहता है
फिर सूखता है, गिर जाता है
जुदाई का दर्द लिये
ख़ामोश हो जाती हैं
डालियाँ !

अब हवा भी नहीं करती उनसे
अठखेलियाँ।
भूल जाते हैं रास्ता
अब बादल भी।
ख़ाली ख़ाली, काली काली
ख़ौफ़नाक सी डालियाँ।

रातों को उनके साये
और लम्बे हो जाते हैं
वे रहती हैं ख़ौफ़ज़दा
अपने ही सायों से
करती हैं इन्तज़ार
कब आएगी बहार !

और एक दिन
चुपके से आ जाती है बहार
फूंकती है एक नही रूह
बोझ से प्यार के
झुक जाती हैं डालियाँ।

चिपक जाते हैं फूल
डालियों से
छिपा लिया चेहरे को
बच्चे ने मां की गोद में।
डालियों का ख़ौफ़
सिमटता है, छा जाता है
जीवन, फूल खिल उठते हैं।

मुझे बताओ न
ये कैसा ख़ौफ़ है ‘मेरे अपने ’
जो छाया रहता है तुम पर !

१२

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जुलाई २०१०

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