आज फूलों को देखा।
उलझे पड़े थे
नरग़े में ख़ूंख़ार झाड़ियों के
जकड़े से
रिस रहा था लहू
उनके ज़ख़्म-ए-जिगर से
तीरो-निश्तर की मानिंद
काँटे ही काँटे
जो ख़ूंरेज़ उनका
बदन कर रहे थे
लहू रंग शबनम के नाज़ुक से क़तरे
ख़ारों के दामन में बिखरे पड़े थ
और रंग बिरंगी
जंगली फूलों की आँखें
सवेरे, महकते उजालों को लेकर
राह उसके क़दमों की
बस तक रही थीं।
ख़ूंखार काँटों भरी झाड़ियाँ सब
मुंडेरों पे फैली दरख़्तों से लिपटी
कि फूलों को ताक़त से अपनी कुचलती
हवाओं की लहरों में चीख़ें समोती
खड़ी हैं कतारें बनाए हुए अब
न जाने क्यों चुपचाप, ख़ामोश हैं सब
कोई उनको आके सजाए ख़ुदारा!
उजड़ने से उनको बचाए ख़ुदारा!
कहाँ है मेहरबां वो सारे निगहबां
कहाँ सो गए थक के उनके मुहाफ़िज़
नहीं उनका कोई भी वली व हाफ़िज़।
ख़ामोशी में गुम हो न जाने कहाँ तुम
ये काँटों भरी झाड़ियाँ सब तुम्हारी
कि ख़ूंख़ार जैसी कटारी हों सारी
करें अपने अश्कों से ख़ुद आबयारी
संदेसा हवाओं के क़ासिद से भेजें
कि लौट आओ रूठी हुई क्यों ख़ुदारा
घर अपना बचाओ क्यों सोई हुई हो!
यो ख़ूंख़ार काँटों भरी झाड़ियाँ सब
परेशां तुम्हारी जुदाई में हैं अब
ख़ी तक रही हैं ये रस्ता तुम्हारा
ख़ुदारा उन्हें आके दे दो सहारा।