अनुभूति में
ज़किया ज़ुबैरी की रचनाएँ-
नई रचनाओं
में-
अल्युम्युनियम के प्याले वाले कुत्ते
उलझन
ढाल
धूप का ढलता साया
फिर बदल गया
छंदमुक्त में-
और बच्चे खेलते रहे
क्या उसे हक़ था
खारदार झाड़ियाँ
दो खुली आँखें
ये कैसा ख़ौफ़ है
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धूप का ढलता
साया
हाँ !
चाहते तुम मुझी को हो
मगर क्यों?
जानती नहीं।
चाहते क्या हो
समझती नहीं।
और जो कहते हो
मानती नहीं।
तुम्हारे पास है
उम्र की दौलत !
मेरे पास
उधार की उम्र।
तुम सुन्दर, बलिष्ठ, जवान
मैं एक धूप का ढलता साया।
भटक जाते हो तुम
संभल भी जाते हो
प्यार से मेरे।
क्यों करते हो प्यार?
मैं तो बस हूं एक मेहमान।
आँखें खोलो
आकाश को देखो
चाँद एक है
लगी है भीड़
सितारों की !
१८ अक्तूबर २०१० |