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उलझन
ढाल
धूप का ढलता साया
फिर बदल गया

छंदमुक्त में-
और बच्चे खेलते रहे
क्या उसे हक़ था
खारदार झाड़ियाँ
दो खुली आँखें
ये कैसा ख़ौफ़ है

 

दो खुली आँखें

वो दो आँखें – घूरती
काली काली – गहरी
पलक झपकाते
देखे उन आँखों ने
सपने।

जीने का अन्दाज़
उसका साथ
खेलते बच्चे अँगनाई में
देते काँधा – माँ बाप को

उसका मधुर स्पर्श
ये कैसा देश-प्रेम?
उन्हीं दो आँखों ने
दिया ज्ञान – अक्षरों का
और जुड़ गया उसके साथ
आतंक!

एक धमाका
सिर लटक गया
पीपल के पेड़ पर
दो खुली आँखें
बस देखती रहीं।

१२

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जुलाई २०१०

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