साँझ
साँझ पास आ के बैठी है
मुझे समझाती है
दिन के उजालों से दूर होने का
भेद समझाती है
साँझ अलबेली है
मुझे गले लगाती है
अब उजालों से दूर होने का
नहीं है दुःख
रात की रहस्यमयी अंधकारमयी परतों का
नहीं है भय
साँझ पास बैठी है
मुझसे रंगीन कर रही है
भीग रहा है मन
सूर्यास्त के रंगों से
चुरा ली है लालिमा उसकी
कर्ज़दार हूँ में
साँझ का साथ
बस
पल भर का है
१ मई २०२४ |