अनुभूति में
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बेटियाँ
तुलसी के बीरे-सी पवित्र
संस्कार में पिरोई बेटियाँ
पतझर या सावन की हवाओं में
चिड़िया-सी उड़ जाती हैं
माँ जीती है
इनमें अपना बचपन
पिता को याद आती हैं
बहनें
वात्सल्य का
एक दरिया बहता है
थाम के उसका एक सिरा
बह जाती हैं
आँगन में
फैलती हैं मूँग बड़ियाँ
बिखेरती हैं
कुछ चावल
दाना चुगते पंछी
चहकती बेटियाँ
धूप के कुछ टुकड़ों संग
बदल देतीं हैं आँगन
दीवाली के घरौंदों,
भोर के तारे
और
झूले पर भीगते
खिलौनों-सी
आँसुओं में
नहा जाती हैं बेटियाँ
सजाती हैं आकाश
जलाती है चौखट पर
स्नेह दीप
दो घरों की लाज बचाती
आँचल में खिलाती हैं फूल
और माँ की तरह बन जाती हैं
२६ जनवरी २००९ |