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तीर्थ

सौंधी हवा का झोंका
मेरे आँचल में
फिसल कर आ गिरा।
वक्त का एक मोहरा हो गया।
और फिर
फिजाओं की चादर पर बैठा
हवाओं को चूमता
आसमानों की सरहदों में कहीं
जा के थम गया।
एहसास को एक नई खोज मिल गयी।
एक नया वजूद
मेरी देह से गुजर गया।

आसक्ति से अनासक्ति तक की दौड़
भोग से अभोग तक की चाह
जीवन से मृत्यु तक की
प्रवाह रेखा के बीच की
दूरियों को तय करती हुई मैं
इस खोने और पाने की होड़ को
अपने में विसर्जित करती गई।

न जाने वह चलते हुए
कौन से कदम थे
जो ज़मीन की उजड़ी कोख में
हवा के झोंके को पनाह देते रहे।
इन्हीं हवाओं के घुँघरुओं को
अपने कदमों में पहन कर
मैं जीवन रेखा की सतह पर
चलती रही, चलती रही

कभी बुझती रही
कभी जलती रही।

१ मार्च २०१६

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