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बहती खलाओं का वो आवारा टुकड़ा

कभी देखा था इसे
पलक झपकती रौशनी के बीच
कहीं छुपछूपाते हुए
जहाँ क्षितिज के सीने में उलझी मृगतृष्णा
ढलती शाम के कदमों में दम तोड़ देती है।

और कभी
हवा के झोंकों में लिपटे
पत्तों की सरसराहट में
इसकी मद्धिम सी आवाज भी सुनी थी मैंने
और कभी
यह उसी भीनी हवा के झोंके सा
छू कर निकल गया था मुझे हलके से
कभी
फूल-फूल में
इसकी खुशबू भी चुनी थी मैंने!
कभी
इसने मुझे अपनी बाँहों में कैद करके
जकड के रख लिया था
अपने सीने की असीम तड़प के चुंगल में

बहती खलाओं का
वो आवारा टुकड़ा

पल-पल मेरे साथ
चलता भी रहा
जलता भी रहा
जिसे सँजो के रख लिया
एक दिन मैंने
दिल की हर एक धड़कन में
और महसूस किया
उसकी खुशबू को
बहते पलों के अविरत झुरमुट में।

देखा है आज उसे पहली बार
मन के स्पष्ट दर्पण में
सुना है आज उसे ज़मीन की
उभरती साँसों के निरन्तर स्पंदन में
छुपा लिया है इसे
हर पल के बहते हुए
हर एक रंग में।

बहती खलाओं का
वो आवारा टुकड़ा
घुल चूका है मिश्री सा
मेरे जीवन के अविरल मिश्रण मे।

१ मार्च २०१६

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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