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अनुभूति में लाल जी वर्मा की रचनाएँ-

छंदमुक्त में
अकेला
उत्तिष्ठ भारत
मुझमें हुँकार भर दो
मेरे हमसफ़र
चार छोटी कविताएँ
समय चल पड़ा
सुनोगी
क्षणिकाएँ
मुक्तक

 

  उत्तिष्ठ भारत

वह बुड्ढ़ा पागल है
पता नहीं किसे कह रहा
"उत्तिष्ठ भारत"
किसे उठा रहा है?

उसे क्या पता
यहाँ नहीं तो भारत है
न ही भरत कोई
यहाँ तो हैं
अलग–अलग सूबों के सूबेदार–
पंजाब, हरियाणा, बिहार, औ'
राजस्थान!

खलिहानों में लगी हैं
अलग–अलग ढेरियाँ
अन्न बीज से पैदा हो रही
संगीन की फौज
जातिप्रथाओं के पुस्तकालय में
खो गया है "अर्थशास्त्र"

रहट के चरमराते संगीत में
बसता है आतंक–गान
शब्दों के पंख
हो गए हैं लहूलुहान
गेहूँ की बालियों में
बंट गया इंसान
माटी से सोंधी महक नहीं
सड़ांध सी बू आती है

धरती का मरुथल
जब भर जाएगा कंकालों से
पानी का सोता
गर्भ में छिप जाएगा, फिर,
आवश्यकता होगी तब
मनीषिेयों की,
मनन की, चिंतन की

अभी जब धरती 'धरणी' है,
गर्म साँस हैं,
अनुरागपूर्ण स्पर्श हैं,
आस्था की जड़ें हैं,
झरनों में संगीत हैं,
समुद्र में उच्छ्वास है,
नदी में मीठा जल है,
मेरे और तुम्हारे बीच
संबंध की डोर है,
पक्षियों के पंख में गति है,
हवा में संगीत है,
पछियारी हवा के झोंके में
मचलती, गाती गेहूँ की बालियाँ हैं
फूलों में महतक हैं
भौरों का गुंजन है,
आँधियों के पश्चात बसा विश्वास है–
पनपते, पलता हुआ पुननिर्माण का,
अभी, जब मन करता
प्रणय–गीत गाने को
शीतल चाँदनी में,
अभी, जब
सूर्योदय से सूर्यास्त तक
कर्मरत शरीर पर
प्रत्येक स्वेद–कण
गवाह हैं मनुष्य की चेतना की
चिंतन को दफ़ना दिया गया है
गहरे रेगिस्तान में
खेज होगी फिर
अनवरत, असफल
चिंतन की
आवाहन होगा चिंतन को
चेतना में लौट आने का

शून्य का बवंडर पर
इतना क्षणिक भी नहीं
कि अभी आया औ' अभी गया!
ब्रह्मांड की वर्षा ही शायद
बुझा सकेगी,
शांत कर सकेगी उस बवंडर को!

हाँ, चाणक्य पागल ही रहा होगा
जो बार–बार कहता रहा
"उत्तिष्ठ भारत"

१ जून २००५

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