अनुभूति में
लाल जी वर्मा की रचनाएँ-
छंदमुक्त में
अकेला
उत्तिष्ठ भारत
मुझमें हुँकार भर दो
मेरे हमसफ़र
चार छोटी कविताएँ
समय चल पड़ा
सुनोगी
क्षणिकाएँ
मुक्तक
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समय चल पड़ा
कुम्हार के चाक पर
बनती आकृतियाँ
देख रहा था मैं,
आत्मसात करने, समझने
कला की विवशता, कुछ बनने की,
एकाएक कुछ हलचल हुई
औ' समय चल पड़ा।
कंचे के खेल में सबको हरा कर
मास्टर बनना था मुझे
बनना था फकीरे की तरह
जो बात–बात में कंचे को
गोली की तरह दागता था
बारिश के दिनों, रिमझिम फुहारों में
झरती बूँदों में, मन मचलता था,
जी भर नहाने को,
उमस भरी गर्मी से उबकर
आँगन में कूदने की प्रवृत्ति मेरी
अभी पूरी भी नहीं हुई थीं कि
पावों में गुदगुदी हुई,
औ' समय चल पड़ा।
सागर के किनारे,
रेत का किला मेरा
अभी परकोटे बिना अधूरा ही था
कि ज्वार के साथ
समय चल पड़ा।
पता है नीले आसमान तले
कितने स्वप्न बुने थे मैंने!
उन सपनों में ताना भरने ही वाला था
कि समय चल पड़ा।
वहाँ कुछ रोशनी थी
किरणों का आडंबर था
जाड़े की कोमल कुनकुनी धूप थी
दिशाओं का उच्छ्वास हवाओं को
बनाता था गतिशील,
बादल के छोटे–छोटे टुकड़े
छाया–चित्र बनाते दौड़ लगाते–गगन सुत
क्रीड़ा करते याद दिलाते मेरे बचपन की
मेरे यौवन की, जब कली–कली में
प्रस्फुटित होने की आकांक्षा
धूप के आँचल में बसती थी
हवाओं का स्पंदन जब परिवर्तित होता
झरनों के मृदु–हास में
संगीत की कड़ियाँ स्वयं ही पिरो जातीं
सूर्य के किरणों जब होता बँटवारा
झील के सतह पर,
बिखर जाती हीरक–द्युति
झिलमिलाती चाँद की किरणें
नदी के जल–स्तर पर
टूट कर बिखर जातीं
प्रेयसी का 'सर्वस्व समर्पण'
प्रणय के संकेत समेटने में लगा था मैं
कि चुलबुले पाँवों में हलचल हुई
औ' समय चल पड़ा।
शुरू से चल रहा हूँ
समय के पीछे
एक पग का अंतर
पकड़ पाया न मैं
यह भी तो पता नहीं
क्या विवशता थी चलने की
समय का सहयात्री बन
और अब समय पीछे हैं
ढकेले जा रहा मुझे
चलना अनिवार्य है गंतव्य तक
पर गंतव्य कहाँ स्थिर है
कोहरे में खिसकता जाता है
और दूर होती जाती हैं स्मृतियाँ
ठहर, परखना चाहता हूँ
घाटी की नीरवता,
शिलाओं में बसी शीतलता
हवाओं का स्पंदन... पक्षियों का कलरव
हृदय में करना चाहता हूँ अंकित
प्रांगण में बिखरे चित्र
समझना चाहता हूँ
प्रकृति की मौन भाषा,
उसकी दृढ़ता–सहने की,
मानव को...
और विकृत मानवता को
किंतु अकस्मात ही समय के पाँव
फिर चल पड़ते हैं
और गेंद की तरह
लुढ़क पड़ता हूँ मैं
समय की राह में।
१ जून २००५
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