अनुभूति में
लाल जी वर्मा की रचनाएँ-
छंदमुक्त में
अकेला
उत्तिष्ठ भारत
मुझमें हुँकार भर दो
मेरे हमसफ़र
चार छोटी कविताएँ
समय चल पड़ा
सुनोगी
क्षणिकाएँ
मुक्तक
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अकेला
हाँ, मैंने ही पूछा था तुमसे
क्या चलोगी मेरे साथ
समुंदर के पास
काली–सफ़ेद लहरों ऊपर
पैर रख, दौड़ने?
काठ के घोड़े पर सवार हो
कभी–कभी फिसलने?
लहरों के छींटों में नहाने?
गर्मी से उकताए शरीर को
ठंडक पहुँचाने!
गीली रेत में झोपड़ा बनाने?
कभी–कभी आज भी जाता हूँ वहाँ
अकेला . . .
१ जून २००५ |