अनुभूति में
हिम्मत मेहता की
रचनाएँ—
हास्य व्यंग्य में—
चाय का निमंत्रण
छंदमुक्त में—
असमंजस क्यों
कितना सुंदर है यह क्षण
कुछ बातें कही नहीं जातीं
तुमसे क्या माँगूँ भगवान
बात एक छोटी सी
भगवान से वार्तालाप
मन में
मेरा संशय
संकलन में-
दिये जलाओ-
दूसरा दीपक |
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मन में
मन में तो आया था कह दूँ
पर कह न सकी
जैसे बादलों को भेद कर
सूरज निकल आता है
और वसंत की तनहा दोपहरी को
अपनी आभा से पुलकित कर जाता है
वैसे ही अचानक
समय के प्रवाह को तोड़ कर
तुम
मेरे सामने आ प्रकटे
और सहम गयी मैं
एक हल्की कंपकपी
फैल गयी बदन में
मैं सोच भी ना पायी
कि क्या सोचूँ
समय का वह क्षण तो निकल गया
किन्तु मेरे हृदय में वह क्षण
अमर बन कर रह गया
सदा के लिये एक पुलक
हृदय में छोड़ गया।
कितनी सुंदर अनुभूति थी वह
कैसी मीठी थी चुभन।
मन में तो आया था कह दूँ
पर कह न सकी
तुम क्या जान पाओगे कभी
कि उस किंचन क्षण ने
कितनी घड़ियाँ मेरे जीवन से निकाल कर
तुम्हें दे डाली
कितना मेरे दिल को खाली कर
तुम्हारे खयालों से भर दिया
कैसे मैं नींद के बहाने कर
तुम्हें अपनी कल्पना के जालों में बाँधती
लेती ही लेती
कहाँसे कहाँ चली जाती हूँ
मेरे हृदय का टुकड़ा टुकड़ा
नोचा चला जाता है
और इस पीड़ा के आनन्द को
मैं सहन ही नहीं कर पाती
और ना ही छोड़ पाती हूँ
पहली बार मैंने जाना
तड़पन क्या होती है
और चाहत का स्पंदन क्या।
किंतु झूठ कैसे बोलूँ
उसी क्षण ने मुझे
ज़िन्दगी की मिठास दी
और मन में प्रेरणा
आँखों में चंचलता
और होठों पे मुस्कान
मन में तो बहुत आता है कह दूँ
पर कह कहाँ पाती हूँ?
१ दिसंबर २००४
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