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अनुभूति में हिम्मत मेहता की
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हास्य व्यंग्य में—
चाय का निमंत्रण
बात एक छोटी सी

छंदमुक्त में—
असमंजस क्यों
कितना सुंदर है यह क्षण
कुछ बातें कही नहीं जातीं
तुमसे क्या माँगूँ भगवान
भगवान से वार्तालाप
मन में
मेरा संशय

संकलन में-
दिये जलाओ- दूसरा दीपक

 

भगवान से वार्तालाप
मैं आया था भगवान
तुम्हारी शरण में
अपना सबकुछ
समर्पण करने
किंतु
तुमने तो मुझे
ठुकरा दिया!
मूर्ख! सजग हो
ठोकर देखकर
मैंने तो केवल
तुझे जगाया था
तू देना चाहता था
मुझे अपने दोनों हाथ
जिससे कि मैं
तेरे बदले
कठिन परिश्रम कर
तेरा रास्ता
बनाता रहूँ
और तू हाथों से काम ले केवल
हाथ जोड़ने में
तू देना चाहता था मुझे
अपने दोनों पाँव
जिससे कि मैं
उस कठिन रास्ते पर
पगडंडी बना दूँ
तेरे बढ़ने के लिए
और तू काम ले
अपने दोनों पांव
मंदिर की संगमरमरी
सीढ़ियाँ चढ़ने में
तू समर्पण करना चाहता था
अपना सब कुछ मुझको
जिससे कि मैं
तेरी वीरता को उठा कर
ऊपर, ऊँचा पहुँचा दूँ
और तू वीर्यहीन
सबसे कह सके कि
कितना ऊँचा है तू
क्या अभी भी समझता नहीं
अरे मूर्ख!
शेष नाग पर बैठा
मैं कुछ करता नहीं
केवल देखता रहता हूँ
और तेरे किए पर
नाम लगा देता हूँ अपना
जहाँ जाना है
जो करना है
जो सोचना है
जो भी होना है
वह सब
तुझे ही
केवल तुझे ही
करना होगा।
फिर उसका श्रेय
ले लूँगा मैं
अपने नाम पर
नहीं तो कुछ नहीं होगा
बिना तेरे किए
कुछ भी नहीं!

१ दिसंबर २००४

 

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