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असमंजस क्यों?
हूँ लगाए हृदय से यों कस चिपट कर
द्वेश ईर्ष्या क्रोध आकर्षण, विवश हो
प्रेम रस की ओट मन बैठा बेचारा
सिमट कर, ज्यों घिर गया चहुँ ओर से हो
क्यों मुझे है कर पकड़ कर रोक जाता
क्यों ना मैं बेड़ी पुरानी छोड़ पाता
क्या नहीं मैं जानता ये द्वेष आकर्षण
बने कीचड़, दबाए जा रहे इस मन कमल को
क्यों पड़ा हूँ मोह लिपटे चीथड़ों में
क्यों मुझे है प्रेम इतना
नष्ट करने से स्वयं को
क्यों अँधेरे बढ़ नहीं पाते उषा की ओर निर्भय
क्यों न बन पाती सहज सी बात
यह एक ज्योति दिव्या?
क्यों करूँ मैं कल के उस पल की प्रतीक्षा
आज ही यदि सोच लूँ मैं दृढ़ हृदय से
तोड़ दे बस एक झटके में बची जो शृंखला है
बात एक छोटी समझ की आज है यह
फिर जगेगी ज्योति एक मन में विलक्षण
दीप्ति जिसकी सूर्य को फीका करेगी
और मोदित मन भरेगा एक वीणा के मधुर स्वर से,
हृदय को सिक्त कर देगा अनोखा शांति अनुभव
छूट जाएगा सभी नाता भविष्यो–भूत से
इस क्षण में जाएगा समा सारा समय,
नवल आभा बन, उठेगी ज्योति सब जग के लिए
औ' बस बचेगा प्रेम हर कण के लिए मन में पुरंतर।
१ दिसंबर २००४
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