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शहर और आदमी
ऐ बसने वालों मुझमें
क्यों तुम मुस्कराते नहीं हो
लेकर सब साज़ ज़िंदगी के
गीत खुशी के गाते नहीं हो
मयस्सर तुम्हें जब
आराइस के सब सामान
फिर क्यों सहमी–सी, उखड़ी–उखड़ी
आह भरी यह तान।
सुरों पर क्यों तेरे उदासी
हर खुशी जब तेरी दासी
ऐ बाशिंदे मेरे कुछ तो बता
रूह की सिहरन तनिक तो मिटा।
कैसे खेलेगी अधरों पे मुस्कान
जब धुंए, मवाद और जलन से
घुटती, तड़पती, कसकती हो जान।
अजगरों ने समेटा सब संगीतोसाज़
मिले हमें टूटे घूंघरू, बिख़रती आवाज़
कहते हो जन्नत जिसे मयखाने शैतानों के
हवस, लालच, ग़रूर के जामों से छलकते
मंहगे, दिखावटी, क्षणभंगुर पैमानों के।
खपरैलों का ये समंदर
तो बस फाके किया करता है
मुंह का निवाला भी
महलों की भूख को दिया करता है।
तू शमशान, ये कंगूरे डोम तेरे
मरती आत्माएँ, सजती चिताएँ
जलता है इंसान शाम–सवेरे।
गीत ज़िंदगी का
मुरदों के कंठ से सुहाता नहीं है
साज़ लेकर टूटे हुए
साजिंदा राग कोई उठाता नहीं है।
१ मार्च २००५
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