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बचपन की गुहार
यहाँ–वहाँ, इधर–उधर
हर ओर फैली अराजकता
भूख, भय और आतंक की तस्वीरें
टीवी से घरों औ मनों में घुसतीं
जो पहचान बन गई हैं
हमारे इस प्रिय ग्रह को
विचलित करतीं हैं।
हमारी यह तुच्छ अभिलाषा
काश! न हो अब कोई और लड़ाई
पिता का साया मिले सभी को
न हो प्रदूषण स्वच्छ हवाओं में
सागर लहराए अपनी नैसर्गिक अदाओं में।
नाश हो विनाश का
अंत हो आतंक का
कवि विचरें क्षितिज तक
ज्ञान का प्रकाश हो
शिक्षा पहुंचे सभी तक
हर कोई अपना मुख्तार आप हो।
नहीं चाहिए हमें
भूख, बेबसी और लाचारी
सड़क पर मंडराता भूखा बचपन
खौला देता है हमारा अंतर्मन
तृषित बचपन की अतृप्त भूख
बढ़कर इससे, क्या होगा कोई दुःख।
प्रसन्नता का हो ऐसा प्रहार
दुःख, अशांति, भूख, सब जाएँ हार
साम्राज्य हो खुशी का
बच्चे इस दुनिया के, मिलाएँ ग़र अपने हाथ
दुश्मन दोस्त हो जाएँगे
होगी पूरी, हमारे दिलों की बात।
१ मार्च २००५
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