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आजादी
पर्व आजादी का फिर से आया
तन–मन पर खुमार खुशी का छाया
पर भीतर एक नन्हा प्रश्न कुलब्ुालाया
क्या है, जो हमने आजादी से पाया
क्या है, आजा.दी की परिभाषा
मिला क्या वह, जिसकी थी अभिलाषा
झंडे और शासक का बदल जाना
गर आजादी है
तो बेशक हम आजाद हैं
तिरंगा हमारा अपना है, शासक हम ही चुनते हैं
आजादी का विस्तार यदि,
शब्द से परे यदि आत्मा तक है
तो सोचो क्या हम आजाद हैं
दासता अभी छूटी कहाँ, बसी हमारे अंतस में
गुण–सूत्र बन प्रवाहित, परिलक्षित हमारे आचरण में
जाति का बंधन, धर्म की जकड़न
भाषा–भेद, अंचल–सीमा
सब विभेदों ने मिलकर
एका हमारा हमसे छिना
त्यागी हमने बाह्य दासता
अंदर उसे अपनाया
शरीर की भांति, मन भी स्वछंद विचरे
कभी न यह, ख्याल भी आया
भाषा, संस्कृति, जीवन–मूल्य, सभी अपने भुलाए
दास ठहरे, अंधानुकरण किया,
मालिक जो बतलाए
बन बैठे कुछ लाट साहब,
अपने–पराए सब बिसराए
तंत्र पुराना जारी है, खुद को नया चोगा पहनाए
हर छोटा अहलकार अब भी
हरिया और गोबर का माई-बाप है, विधाता है
तिस पर तुर्रा यह
आज़ वह शोषक का एजेंट नहीं
शोषित का सर्वेंट कहलाता है
संग्राम नया फिर एक लाना होगा
सिमटी महलों तक जो आजादी
उसे खपरैलों तक पहुंचाना होगा
पर अफ़सोस,
जज़्बा औ तड़प जो उपजे थे
झंडा और शासक पाने को
बचा नहीं लेशमात्र भी उसका
सच्ची आजादी पाने को
१ मार्च २००५
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