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अनुभूति में हंसराज सिंह वर्मा 'कल्पहंस' की रचनाएँ—

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आजादी
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नव–वर्ष
मुठ्ठी भर मिट्टी
होली की कामना
शहर और आदमी
सिंधु पार
 

 

मुठ्ठी भर मिट्टी

मुठ्ठी भर मिट्टी स्वदेश की
संग मैं अपने ले जाऊँगा
उस अंजाने पराए देश में
कुछ अपना, कुछ पहचाना ले जाऊँगा।

उस दूर देश में मां की गोद न सही
उसके आंचल का चीर तो होगा
मल लूंगा माथे पर आएगी जब यादे–वतन
तन उद्विग्न, चित्त अशांत अधीर होगा।

अपने मकान के कोने में उसे सजाऊँगा
निहारूंगा नित्य तब सुकून कितना मैं पाऊँगा
सौंधी–सौधी सुगंध से महकेगा आंगन सारा
बरसेगी असीम शांति, मिलेगा अक्षुण्ण सहारा।

पर मैं वह मिट्टी लूं कहाँ से
रचा बसा जिसमें मेरा भारत हो
कण–कण में हो विविधता
छलक–छलक उठे सौंदर्य
रोम–रोम से झरती चाहत हो।

चलूं उठा लूं एक मुठ्ठी संसद के गलियारों से
सुना संसद लघु भारत है
बनता भारत उसके विचारों से
मूढ़! कौन तुझे वहाँ जाने देगा
मुठ्ठी भर मिट्टी तो दूर
रत्ती भर हवा न लाने देगा।

ऐसा जकड़ा–जकड़ा मेरा भारत नहीं हो सकता
हवा भी जहाँ पहरे में हो
वहाँ प्रेम–बंधुत्व नहीं रह सकता।

क्यों न भर लूं एक मुठ्ठी, मंदिर के प्रांगण से
नित्य पावन यह होती भागवत कथा के वाचन से
शीतलता यह बहुत क्षीणकाय, पलती बडे. नाज़ों से
दहक उठती गिरजे की घंटी या अजान की आवाज़ों से।

इतना एकरंगी संवेदनाहीन,
मेरा भरत–पुरुष नहीं हो सकता
लाख झंझावातों के भंवर में,
उसका इंद्रधनुष नहीं खो सकता।

बहुत सुहासित कण–कण शोभित, राजघाट की यह फुलवारी
भर लूं अंजुली क्या यहाँ से, सोया जहाँ पे्रम–पुजारी
बापू नहीं, यहाँ हमने उनके सपनों को दफ़नाया है
राख छुपाकर संगमरमर में आदर्शो का बाजार लगाया है।

विस्तृत फलक को संकुचित कर, देखा तनिक उजियारे में
वांछित मिट्टी को पाया मंैने, अपनी मैया के चौबारे में।

यह चूल्हा, जिसमें उनका सर्वस्व समाया
झोंका अपना वजू.द दीवारों को घर बनाया
ममत्व का गूंथा आटा, अंकुर को वृक्ष बनाया
त्याग की डाली खाद, फल को स्वादिष्ट बनाया।

यह चूल्हा जिसकी मिट्टी लाईं थीं वे उन खलिहानों से
जिन्हें उर्वरा है बनाया, पुरखों ने अपने बलिदानों से
खुरचन तनिक–सी इस चूल्हे की संग मैं अपने ले जाऊँगा
अपने आराध्य को हो समर्पित स्वयं न्यौछावर मैं हो जाऊँगा।

१ मार्च २००५

 

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