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फूल बेमतलब खिले

फूल बेमतलब खिले, खिलते रहे
लोग मतलब से मिले, मिलते रहे

ज़िंदगी है सिर्फ़ दामन क्यों सभी
फाड़ते या बिन सिले, सिलते रहे

ज़ख़्म ये कैसे भरे हैं वक़्त ने
कुछ उसी से फिर छिले, छिलते रहे

लोग चलते हैं न अपने दम सभी
कुछ लुढ़कते या ठिले, ठिलते रहे

पेड़ कटते देखकर सहमे हुए
पात ये सारे हिले, हिलते रहे

घाव बातों से न ‘गौतम’ के भरे
वे मगर उनसे छिले, छिलते रहे

२० दिसंबर २०१०

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