रौशनी का तीर
रौशनी का तीर बढ़ता आ रहा है
इक नया चेहरा उभरता जा रहा है।
बीच में दोतरफ़ा आईना लटकता
और वहम दोनों का बढ़ता जा रहा है।
खुल रहा है उस तरफ़ दुनिया का
राज
इस तरफ़ इनसां बदलता जा रहा है।
इक पुरानी गाँठ खुलती जा रही है
इक नया चाँद उलझता जा रहा है।
साँस की गरमी भी अब बढ़ने लगी
है
बर्फ़ का ये घर पिघलता जा रहा है।
ज़ब्त कर बैठे हैं हम सारे सवाल
इक इरादा था, वो उठकर जा रहा है।
9 सितंबर 2007 |