निगाहों में
निगाहों में कोई इशारा नहीं है
ये कैसा है दरिया, किनारा नहीं है।
हमारी निगाहों में चिनगारियाँ
हैं
कोई आसमाँ पर सितारा नहीं है।
मैं जाऊँ तो कैसे, बुलाने पे
उसके
बस आवाज़ दी है, पुकारा नहीं है।
वो पत्थर न पिघले, जो पाँव न
फिसले
उन्हें वादियों का सहारा नहीं है।
ये सारा गुलिस्ताँ हमारा है
लेकिन
कोई फूल इसमें हमारा नहीं है।
ये दुनिया पुरानी-सी होने लगी
है
अभी चार दिन भी गुज़ारा नहीं है।
निगाहों की शम्मे जलाए हुए हैं
अँधेरे में उनका गुज़ारा नहीं है।
ज़मीं पर ठहर के ज़रा देर देखो
फलक ज़िंदगी का सहारा नहीं है।
9 सितंबर 2007 |