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अकस्मात
यह जीवन
एक अकस्मात है
ऐसा तो नहीं
पर
फिर भी
कैसे मिले कारण
होनी का
इस तितर-बितर में से?
और ऐसा भी कैसे मान लूँ,
कि बिना कारण ही
यह सब कुछ हो गया?
अरे! यह सब तो
बस देखने भर को है
सच नहीं, सच नहीं।
यह लगाव हैं
तंतुओं के
जो खींचते हैं, फेंकते हैं
तुम्हें, और मुझे
और फिर इन सब को
जो हमसे जुड़े हैं।
बिना किसी मापदंड के,
किसी आँकड़े के, कैसा गणित?
पूछो मत
कैसी हूँ, क्या हूँ, कितनी हूँ, क्यों हूँ।
यह जीवन
एक अकस्मात है
ऎसा तो नहीं।
२१ जनवरी २००८
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