अनुभूति में
विश्वमोहन तिवारी की रचनाएँ —
छंदमुक्त में-
अट्टादहन
आज जब अचानक
आत्मलिप्त
एकलव्य
कंचनजंघा
बंधुआ मज़दूर
बेघर
लहरें
क्षणिकाओं में-
आस्था, पोपला, सुधी पाठक, खौफ, कार्गिल
की जीत
संकलन में-
गाँव में अलाव-
शरद
की दोपहर
प्रेमगीत–
जवाकुसुम
गुच्छे भर अमलतास–
जेठ का पवन
–ग्रीष्म
की बयार
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कंचनजंघा और कविता
अँधेरे मुँह
होटल के तारों को छोड़
चढ़ता हूँ पहाड़ी पर
अदृष्य चोटी की ओर
कंचनजंघा के दर्शन करने
कल्पना ही पकड़ सकती है
जिन नक्षत्रों की दूरी
उन्हीं की सुरमई रोशनी में
टटोलता हूँ राह मैं
कभी हल्के से टिके
पत्थरों सा फिसलता
कभी आड़ी तिरछी
पगडंडियों सा भटकता
पहुँचता हूँ चोटी पर
चट्टानों की गरिमा
और तरूओं की हरीतिमा
मेरी धमनियों मै फैल जाती है
और बढ़ जाती है मेरी उत्कंठा
अवगुंठन में पर छिपी बैठी है
कंचनजंघा
थोड़ी ही देर में देखता हूँ
हल्की अरूणाई आभा में
उषा लगा रही है
कंचनजंघा को
चन्दन का उबटन
हैरान हूँ
कहाँ है सूरज!
कहाँ से आया यह उबटन!
अरे कंचनजंघा के कपोल
अरूणिम अरूणिम!
ज्यों गोपियों के बीच
कृष्ण का हो आगमन
और ढंक लिये हों लाज ने
सबसे पहले राधा के कपोल
और पूर्व में
अभी भी नहीं दिख रहा है सूर्य
क्या पहली किरन
छिपकर फेंक रहा है सूर्य
अब कंचनजंघा की
सखियों के भी गाल
हो रहे है लाल लाल
मैं देख रहा हूँ
सब तरफ लाल ही लाल
दमक रही है कंचनजंघा
तृप्त और दीप्त
स्वर्णिम स्वर्णिम
प्रेम के प्रथम मिलन पर
मुस्करा रहा है सूर्य
मधुरिम मधुरिम
अब चमक रही है कंचन जंघा
शुद्ध रजत धवला सी
भौरे गुनगुनाने लगे है
हरियाली गाने लगी है गीत
कंचनजंघा की धुन पर
नर्तन कर रहा है आकाश
मैं खड़ा हूँ शिखर पर
निस्तब्ध
डूब गया हूँ
आकाश से उतर आई है
सौंदर्य सरिता
और कोरे कागज़ पर
बिलकुल वैसे ही
यह कविता!
२० जनवरी २००२
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