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अनुभूति में तरुण भटनागर
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वृक्ष की मौत पर

वह मिटा,
कि मेरा घर आँगन,
यतीम, गुमनाम बना।
तपी न था कोई,
तभी तो नहीं बना,
वह बोधि वृक्ष।
पर वह,
कड़वा नीम आँगन वाला,
अब चिपका है,
मेरी स्मृति दीवार पर,
जैसे फिल्म वाला पोस्टर।
पोस्टर पर है,
कुछ अधूरे चित्र,
युद्ध में,
बमवर्षकों की सूचना देने वाले,
सायरन की तरह,
सहमा देने वाले।
सूखी डाल पर कोंपल-गीला नव शिशु
पतझर-झाड़ते, झड़ते पल,
मेरा मन-शायद उसकी पुचकार,
भीतर की सूनी-डाल पर गीत सीखती चिड़िया,
मेरी नींद-हवा में उसकी झूमती डालियाँ,
मस्तक पर टीका-उच्च होकर उसका टेकना आकाश,
सलेटी शाम-उसका चमकता बोरला,

मैंने नहीं छोड़ीं,
उस दधीचि की हडि्डयाँ
निर्विकार भिक्षा मुझे,
जाने कब लड़ना पड़े,
धूप से।
पर,
किसको पड़ी,
तुम जो नहीं अमेजन के जंगल।
बस एक न ढलने वाला शून्य रह गया है।
जो अकस्मात,
भुला देता है,
और मैं सोच पड़ता हूँ,
शायद पसरी हों,
आँगन में तेरी छाँव,
और मैं,
बैठूँगा उसमें,
रोज सुबह की तरह,
पढ़ने अखबार।

८ जुलाई २००३

 

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