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कभी
कभी,
किसी बासी चादर में सूँघूँगा,
उस पर गुजरी,
सुख भरी नींद की गंध।
कभी,
पेपरवेट के नीचे दबे,
थप्पी भर कागज,
बह जाएँगे,
उसी हवा में,
जिसमें वे फडफड़ाते रहते हैं।
कभी डोरमैट में झड़कर गिरी मिट्टी में से,
मैं वह मिट्टी छाटुँगा,
जो मेरे गाँव से आई है,
परिचित पैरों में चिपककर,
अपरिचित की तरह झड़ जाने।
कभी,
कोई फूल बच जाएगा,
सुबह फूल चुनने वाले पुजारी की नजर से,
पत्तों में छुपकर,
हो जाएगा बीज,
दुनिया से दुबककर।
कभी,
मोहल्ले के बच्चे,
मेरे हिस्से का,
पिठ्ठुल का वह खेल खेलेंगे,
जो बचपन में मैं खेल नहीं पाया था,
पापा की डाँट के डर से।
कभी,
जमीन से बाहर निकलती सूखी जड़ पर,
एक हरी गाँठ सी उभरेगी।
कभी,
मुर्दा जमीन पर बनेगा एक घर,
गाएँगी घूँघट वाली औरतें,
ढोलक पर,
बन्नो का बार-बार सुना एक सा गीत।
कभी,
पहरूँगा वही चप्पल,
जो घिसती नहीं है,
छोड़ती जाती है अपने निशान,
धूप में पिघलते रोड़ के डामर पर।
९ जनवरी २००३ |