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अनुभूति में तरुण भटनागर
की रचनाएँ -

छंदमुक्त में-
आदमी के लिए
अकेलपन का जंगल
कभी
गुलदस्ते में फूल
चिंदियाँ
चायवाला
पुराने अलबम की तस्वीरें
बंद और खुली आँखें
बचपन का घर
बरसों से
बादलों के लिए
पहला मानसून
सूरज के साथ साथ
ठंड का कारण
उनकी यादें
विचित्र ज़िन्दगी़
विरोध के तीन तरीके
वृक्ष की मौत पर
समुद्र किनारे शाम
क्षितिज की रेखा

 

ठण्ड का कारण

अगर -
रक्त बर्फ बन जाता,
हृदय रूक जाता हाइपोथर्मिया से,
गल जातीं उँगलियाँ,
अकड़कर, कड़कड़ा जाता पूरा शरीर,

क्या तब भी,
सूरज निर्दोष बरी हो जाता?
अगर तेज ठण्ड,
दुबकाए रखती रजाई में,
और चुपके से हो जाता सबेरा,
तब -
पाप कितना यतीम होता।
शरीर की गर्मी को रोके हैं -
चमड़े का जैकेट,
शरीर और जैकेट के बीच।
पर मेरे सामने वाली बस्ती के लोग,
ठिठुरकर कबके मर गए,
मुझे यकीन है,
अगर ना पहनता जैकेट,
तब देह की गर्मी उस बस्ती तक चली जाती,
और वे न मरते।
शाम और सुबह के,
कम्पकपाते धुँधलके में,
अपने को छिपा चुका है -
संसार का एक लावारिस टुकड़ा,
तो क्या अब भी -
वसुधैव कुटुम्बकम।
शरीर के लिए -
पानी को गर्म होना पड़ा,
पानी के लिए एक शर्त,
जो बाल्टी में इमल्शन रॉड के साथ न होता तो -
क्या बहता होता नदी में?
धूप का धोखा,
जो उनसे,
परिचय से लेकर सहवास तक,
लगातार बढ़ा है।
एक बात जो चुप्पों के पीछे दबी है।
पीठ पर छुरे सी धूप।
पर खिलखिलाते हैं,
विण्टर के फूल -
क्राइसेन्थेमम, पॉपी, नॉस्ट्रेशियम।
अगर माली न होता, तब भी,
वे बगीचे से नहीं भागते,
अंगद के पाँव।
सुने हैं,
ठण्ड के कारण -
पृथ्वी का झुकाव, सूरज का सरकना।
पर इस बार ठण्ड आई थी,
ढेर सी बातों और प्रश्नों,
पर से गुजरकर,
उन्हें वैसा ही छोड़ जाने,
अगली ठण्ड के लिए।
वह न आती तो,
बदल जातीं -
ढेर सी बातें और प्रश्न।

८ जुलाई २००३

 

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