|
समुद्र किनारे शाम
पुलिन को धोने में,
लहरों की हर वापसी के बाद,
रेत पर चमचमाती परत,
मानों-
लकड़ी पर वार्निश,
इलेक्ट्रोप्लेटिंग साल्यूशन से हाल निकली सोने की प्लेट,
रोने के बाद आँख की पुतली,
सहवास के बाद मन,
परत,
जिस पर बेतकल्लुफ अपना सिर टिका,
क्षितिज तक पसार देता है,
अपना थका शरीर,
सपनों डूबा शाम का सिंदूरी आलोक।
सोया शरीर,
जिसे जगाने,
जिसे जगाते,
कमज़ोर हो गई लहरें,
उछालती है,
पिंग पांग गेंद।
जगाने की एक और कोशिश,
जब हवा उल्टी बहेगी,
सोए शरीर के ऊपर से,
क्षितिज से तट तक,
जानकर भी,
जो हमेशा जाना,
कि, समय की कुंभकर्णी नींद।
पर क्या पता,
शायद हो जाय,
शाम के बाद दोपहर ।
शाम को पलटने की कुश्ती के,
कुछ मूक दर्शक,
अभ्यस्त से नारियल के पेड़।
क्या जान पाते हैं?
उन पर छिटका सिंदूरी आलोक,
चाहे-अनचाहे,
अपनाने कुश्ती में ।
किनारे है, एक रोड,
रोड पर चहलकदमी करते लोग,
चुनकर शाम,
शाम से दूर
क्या कभी जान सकते हैं?
समुद्र की हार की हताशा।
मेरी जात के लोग,
कट-कट से दूर,
जिन्हें ध्यान भी नहीं जाता,
कि कितनी आसानी से,
हो गई रात।
चलते समय,
मैंने अपने कान और मुँह पुलिन से उठा लिये,
बस आँखें छोड़ दी,
जो आज भी,
रेत पर समुद्री केकड़ों के,
बिलों के पास पड़ी है।
मैं समुद्र को,
औपचारिक विदा कह देता,
पर तब तक,
शाम अंधेरों तक बढ़ गई।
८ जुलाई २००३ |