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अनुभूति में तरुण भटनागर
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विरोध

विरोध के तीन तरीके
उस रोज ध्यान से देखा था,
चौराहे वाले फव्वारे को,
कि,
ऊपर उछलना और हवा में बारीक बूँदों में बँटकर बहना,
फव्वारे की नियति नहीं है,
बल्कि पाइपों और टंकियों में,
पूरे बल के साथ दबा दिए जाने के बाद,
एक वाल्व की,
सुनियोजित गुंजाइश से निकलकर,
पानी को,
पानी को भी,
पानी की तरलता को भी,
उठना पड़ता है,
ज़मीन के विरूद्ध ऊपर की ओर।
और यों,
हवा में तीखेपन से उठकर,
हवा में बिख़रकर,
फिर नीचे गिरकर,
वह उस याँत्रिकी का विरोध करता है,
जो दबाती है उसकी तरलता।
तभी तो,
शब्द खुद ब खुद नहीं होते हैं,
भीतर कहीं होता है,
तरलता पर अनचाहा दबाव,
और शब्द नियोजित हो जाते हैं,
जीवन के कुछ अच्छे विरोधों के लिए।
कुछ ऐसे विरोधों के लिए,
जिन्हें नकारना,
उन मधुमक्खियों को नकारना है,
जो सारे संसार से मीठा इकठ्ठा करती हैं,
और जीवन के अंतिम विकल्प के रूप में काटती हैं,
क्योंकी वे पहली और आख़री बार काटती हैं,
क्योंकी काटने के बाद मर जाती हैं मधुमक्खियाँ,
और जब हम उन पर कटैत होने का आरोप लगाते हैं,
वे मर रही होती हैं,
और उनके छत्तों से टपक रही होती है,
पूरी संसार की मिठास।
एक और तरीके से होता है विरोध,
जैसे ड्राइंगरूम में सजा बोंसाई,
जो आज तक चला आया है,
अनुपजाऊ मिट्टी,
जरा से गमले में बस मुठ्ठी भर ज़मीन,
थोड़ी सी हवा और चंद समय वाली धूप के साथ,
जीवन की इतनी प्रतिकूल संभावनाओं के बाद भी,
हम हर महीने काट देते हैं उसकी जड,
पर वह जिया,
वह जी रहा है बरसों से,
उसे नसीब नहीं है उसके हिस्से का जंगल,
उसके हिस्से का हवा-पानी,
शायद आगे भी ना हो,
और वह जितना जिएगा,
उतना ही कीमती बोंसाई बन जाएगा,
और उतनी ही बढ़कर पक्की हो जाएगी,
उसकी,
उसके हिस्से के जंगल और हवा-पानी से दूरी,
सदा के लिए।
वह जानता है यह सब,
और जानकर भी,
वह धीमे और भिड़े हुए हैं,
यह सिऱ्फ उम्मीद की बात नहीं है,
बात है जीने की,
बिना शर्त विरोध की।
विरोध के इन तरीकों,
फव्वारा, मधुमक्खि और बोंसाई के अलावा भी,
कुछ और तरीकों से उठा जा सकता है,
विरोध के लिए,
अक्सर हम खुद ही तो उठाते हैं,
दरवाजे के सामने जमा बऱ्फ हटाने के लिए फावडा।

१ अगस्त २००५

 

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