|
पहला मानसून
१
उसका इंतजार था।
हमारी इच्छा,
हमारा स्वार्थ,
सो किया उसका इंतजार।
पर हजारों मील दूर से,
समुद्र की नम आर्द्र हवा,
काले घने बादल,
चक्रवात,
घूमते बवण्डर,
वह कभी भी इसलिए नहीं लाया,
कि हम उसका इंतजार करते हैं।
बस एक नियम है,
मानसून के आने का नियम।
वह नहीं आता है,
गर्मी से झुलसे पेड़ों के लिए,
महीनों से चुप आँगन की टीन की छत के लिए,
धूल में पड़े बीजों के लिए,
आकाश की ओर मुँह कर,
बूँदों के स्पर्श से खिलखिलाने वाले चेहरों के लिए,
घर की नंगी दीवार के लिए,
जो उसे देख हड़बड़ाती हुई काई की साड़ी पहन लेती है,
अगर वह इनके लिए आता,
तो क्या वह कभी जा पाता?
उसका आना,
उसका जाना,
हमसे सरोकार बिना उसका अपना है।
वह,
धरती आकाश,
किसी का भी साथी नहीं।
वह बरसकर खत्म हो जाएगा,
बिना किसी हिसाब किताब के,
क्योंकि ऐसा ही नियम है।
२
मैंने बहुत लंबी यात्रा की है।
बंबई से जयपुर, फिर दिल्ली, फिर झाँसी, फिर कलकत्ता
और वह बादल,
पूरे समय मेरे साथ रहा है।
एक सा फुरफुराता,
एक सा बरसता, गरजता।
देखने का दोष नहीं है,
वह वास्तव में एक सा रहता है।
वह भेद नहीं कर पाया है -
गंगा और सीक्याँग में,
हिन्दी, तमिल औ़र फिलीपीनो में,
दिल्ली और हाँगकांग में,
नॉर्डिक और मंगोलाइट में,
कुर्ता और बाली के खुले वक्षों में,
सेण्ट थॉमस माउंड और अंकोरवॉट के शिव में,
नंगे ओंग, जावा और सिंगापुर के सभ्य सुसंस्कृत में,
मुझमें और रजिया की बकरी में,
हरी घास और सूखे पत्तों में,
वह बहुत आगे निकल गया है,
बहुत आगे,
जहाँ हम नहीं।
तभी तो,
बम्बई, जयपुर, दिल्ली, झाँसी, कलकत्ता तक,
मैं उसे पछाड़ नहीं पाया।
शायद,
पूरी धरती,
और पूरे आकाश की,
यात्रा करने के बाद भी,
मैं उसे पछाड नहीं पाता।
३
वह काला बादल,
बदल सकता है -
पूरी हवा,
कड़वा अधूरा मूड,
पुराना दृश्य,
पूरी जमीन,
अँधेरे में कानों में कहलवा सकता है,
बहुत दिनों से दबी बात,
पर कुछ नहीं कर पाता है,
आकाश और चाँद तारों का,
बस उन्हें ढँक देता है।
ढँक देता है,
बरसों से जागते चाँद तारों को,
हमेशा व्यस्त आकाश को।
ताकि उकसाए ढँकी चाँदनी,
क्या होती कल से ज्यादा चमकीली?
क्या हमेशा की तरह ठण्डी?
क्या उसमें ज्यादा चमकते वरबीना के फूल?
ताकि दिख ना पाए,
मनचाहा आकाश,
और वे चांद तारे,
जो मुझे घसीटते हैं,
मेरी यादों में।
यूँ,
वह मुझे,
बार-बार बचाता है।
४
वह समुद्र से आता है,
जमीन के लिए।
वह बहुत ऊपर तैरता है,
नीचे के लिए।
वह दूर दिखता है,
हथेली पर गिरती बूँदों के लिए।
वह खूब गरजता है,
भीतर की चुप्पी के लिए।
वह ठण्डा है,
चंपा को भिगोकर आग के लिए।
वह सूरज को ढंक़ देता है,
मेरे कमरे की ठण्ड के लिए।
वह दूर चमकता है,
हाथ को हाथ सुझाने के लिए।
८ जुलाई २००३ |