अनुभूति में
सुषमा भंडारी की
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सोलह दोहे
जब से भीतर हो गए, दुनिया के सब ठाठ
तब से बाहर हो गई, माँ- बाबा की खाट
आज सड़क के बीच में, शील हो रहा भंग
जानवरों –सा जी रहे, ये है कैसा ढंग
राजनीति की आड़ में, खेलें नित्य प्रपंच
उनको ही मिलने लगा, आज सभा में मंच
क्योंकर खेलूँ फाग मैं, फाग हुआ बेरंग
फीका है रंग प्यार का, गहरी है अब जंग
बाड़ खा रही खेत को, कौन करे रखवाल
अपनों की पहचान ही, सबसे बड़ा बवाल
नित सवेरे मंदिर में, बजा रहे जो शंख
सांझ ढले वो तोड़ते, तितलियों के पंख
आधुनिकता भा रही, त्यागी सारी रीत
मोलभाव अब हो रहे, जैसी चाहो प्रीत।
शेर जुगाली कर रहा, गदहा रहा दहाड़
सच्चाई खामोश है, झूठे तिल का ताड़।
बेटी तो एक फूल है, आंगन को महकाए
एक नदी दो घरों की, वाटिका बन जाये।
आज सभा बर्खास्त हुई, आना दो दिन बाद
बिन मेवा, फल, फूल के करता क्या फरियाद।
दह जाऊँ तो आग हूँ, बह जाऊँ तो नीर
ढह जाऊँ तो रेत हूँ, सह जाऊँ तो पीर।
सटे- सटे से घर यहाँ, कटे-कटे से लोग
भीतर हैं खामोशियाँ, फिर भी छप्पन भोग।
भीतर भी उत्पात है, बाहर भी उत्पात
शीतलता की लहर कब, लाएगा सुप्रभात।
काशी दहली जा रही, काबा है खामोश
मरने वाले एक हैं, कब आएगा होश।
मन्दिर-मस्जिद भी नहीं, रोक सके विध्वंस
कृष्ण- सुदामा हैं नहीं, अब है केवल कंस।
ग़ैरों को मिलने लगे, भीतर के सब राज
आस-पास मंडरा रहे, चील, गिद्ध औ' बाज।
४ फ़रवरी २००८
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