अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में सुषमा भंडारी की
रचनाएँ -

नई रचनाएँ-
कुछ और क्षणिकाएँ

क्षणिकाओं में-
दस क्षणिकाएँ
चौदह क्षणिकाएँ

दोहे
सोलह दोहे

कविताओं में-
आज़ाद
सच

अंजुमन में-
गर्म हैं अख़बार
दिल में हमारे

 

सोलह दोहे

जब से भीतर हो गए, दुनिया के सब ठाठ
तब से बाहर हो गई, माँ- बाबा की खाट

आज सड़क के बीच में, शील हो रहा भंग
जानवरों –सा जी रहे, ये है कैसा ढंग

राजनीति की आड़ में, खेलें नित्य प्रपंच
उनको ही मिलने लगा, आज सभा में मंच

क्योंकर खेलूँ फाग मैं, फाग हुआ बेरंग
फीका है रंग प्यार का, गहरी है अब जंग

बाड़ खा रही खेत को, कौन करे रखवाल
अपनों की पहचान ही, सबसे बड़ा बवाल

नित सवेरे मंदिर में, बजा रहे जो शंख
सांझ ढले वो तोड़ते, तितलियों के पंख

आधुनिकता भा रही, त्यागी सारी रीत
मोलभाव अब हो रहे, जैसी चाहो प्रीत।

शेर जुगाली कर रहा, गदहा रहा दहाड़
सच्चाई खामोश है, झूठे तिल का ताड़।

बेटी तो एक फूल है, आंगन को महकाए
एक नदी दो घरों की, वाटिका बन जाये।

आज सभा बर्खास्त हुई, आना दो दिन बाद
बिन मेवा, फल, फूल के करता क्या फरियाद।

दह जाऊँ तो आग हूँ, बह जाऊँ तो नीर
ढह जाऊँ तो रेत हूँ, सह जाऊँ तो पीर।

सटे- सटे से घर यहाँ, कटे-कटे से लोग
भीतर हैं खामोशियाँ, फिर भी छप्पन भोग।

भीतर भी उत्पात है, बाहर भी उत्पात
शीतलता की लहर कब, लाएगा सुप्रभात।

काशी दहली जा रही, काबा है खामोश
मरने वाले एक हैं, कब आएगा होश।

मन्दिर-मस्जिद भी नहीं, रोक सके विध्वंस
कृष्ण- सुदामा हैं नहीं, अब है केवल कंस।

ग़ैरों को मिलने लगे, भीतर के सब राज
आस-पास मंडरा रहे, चील, गिद्ध औ' बाज।

४ फ़रवरी २००८ 

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter