अनुभूति में
सुषमा भंडारी की
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दो छोटी कविताएँ
आज़ाद
जाने कब से
चेहरे पर लगा है
चेहरा…
उतार कर
फेंक देना चाहती हूँ
मुखौटों पर से मुखौटे
ताकि
हो सकूँ आज़ाद
अपनी ही
घुटन से…!
सच
सच कहना
बहुत मुश्किल है
सच रहना
बहुत मुश्किल है
सच दहना
बहुत मुश्किल है
मगर
सच कहा जाए
सच दहा जाए
और सच
रह जाए
तो हो जाता है
‘सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम!’
४ फ़रवरी २००८
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