राह
उलझनों से निकलकर
काँटों पे चलकर
मिल ही जाती
राह मंज़िल की।
सत्कर्म
ज़िंदगी एक फूल है
जो महकती है
चहकती है
अपने सत्कर्मों से।
दूर-करीब
न काफ़िया मिला
न रदीफ
दर हुए ग़ज़ल से
थे जितना करीब।
घायल दिल
मेरा यह घायल दिल
जानता है अपना कातिल
मगर!
पूजता है उसको।
पंछी
पिंजड़े में पंछी
फड़फड़ाता रहा
उफ न की
सैयाद सताता रहा।
कश्ती
टूटी हुई कश्ती में
जाना है पार
तूफाँ भी आने को
हो रहा तैयार।
भोर
बस्ती-बस्ती
कूचा-कूचा शोर
फिर भी है
खामोशी की भोर।
३० जून २००८