अनुभूति में
सुषमा भंडारी की
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दस क्षणिकाएँ
रुत आई बहारों की
टोली घूम रही
मेले में यारों की
आँखों में समंदर है
डूब के देख ज़रा
तू इसके अंदर है
कुहरा सा छाया है
हर शख्स अकेला है
फिर भी भरमाया है
है बेटी आँख का नूर
हरदम पास रहे
दिल से न होती दूर
विश्वास के बलबूते
हम रहते धरती पर
आकाश को हैं छूते |
फूलों का कहना है
संग में काँटे हैं
ये मेरा गहना है
पतझड़ से डर डर के
सावन को क्यों भूले
क्यों जिए मर मर के
धड़कन में रहते हो
भूत गई तुमको
यह कैसे कहते हो
गंगा जो बहती है
चलना ही है जीवन
यह सबसे कहती है
संस्कार जो छूटे है
अपने हाथों से
खुद हमने लूटे हैं। |